बिजनेस//Delhi/New Delhi :
इस परियोजना को एक तीर से कई निशाने के तौर पर भी देखा जा रहा है। यह सऊदी अरब के चीन और रूस से बढ़ते रिश्तों पर लगाम लगाने की भी पहल है। इस प्रोजेक्ट के तीन हिस्से हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को जी20 सम्मेलन के दौरान एक बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा की। यह परियोजना ना सिर्फ चीन की बेल्ट एंड रोड इनीशटिव (बीआरआई) को चुनौती देती है बल्कि भारत, पश्चिम एशिया और यूरोप की भौगोलिक समझ की फिर से व्याख्या कर सकती है। यह परियोजना वास्तव में जल मार्गों और रेल मार्गों का एक गलियारा समूह है, जो यूरेशियाई महाद्वीप को जोड़ेगी। इसके जरिए डिजिटल कनेक्टिविटी तो बढ़ाई ही जाएगी, ग्रीन हाइड्रोजन को भी एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाएगा।
परियोजना के तीन हिस्से
आधिकारिक तौर पर इसे इंडिया-मिडल ईस्ट-यूरोप इकॉनमिक कॉरिडोर नाम दिया जा रहा है। साथ ही, इसे आधुनिक ‘स्पाइस रूट’ के तौर पर भी प्रोजेक्ट किया जा रहा है। इस परियोजना के तीन प्रमुख भाग हैं।
- पहला, भारत इसके जरिये समुद्र के रास्ते अरब प्रायद्वीप से जुड़ेगा।
- अरब प्रायद्वीप में रेल मार्गों का निर्माण करके उसे संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, जॉर्डन और इस्राइल से जोड़ा जाएगा।
- इस्राइल के पूर्वी भूमध्यसागर के तट को ग्रीस और इटली के समुद्र मार्ग से और बाकी यूरोपियाई महाद्वीप को रेल मार्गों से जोड़ने की भी इसके जरिये योजना है।
नए और पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर का होगा यूज
इस परियोजना में नए और पुराने रेलमार्गों और बंदरगाहों का इस्तेमाल किया जाएगा। इसके लिए भारत, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, फ्रांस, जर्मनी, इटली और यूरोपीय संघ आयोग ने समझौते पर दस्तखत किए हैं। बताया जाता है कि इस परियोजना पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जनवरी 2023 में अपने क्षेत्रीय सहयोगियों से बातचीत शुरू की थी। इस आइडिया को मई 2023 में हुए हिरोशिमा जी7 शिखर सम्मेलन में गति मिली। यह प्रोजेक्ट अमेरिका की उस पहल का हिस्सा है, जिसे पार्टनरशिप फॉर ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट (पीजीआईआई) के नाम से जाना जाता है।
भारत का बाजार पश्चिम एशिया और यूरोप से जुड़ेगा
यह प्रोजेक्ट भारत के बाजार को पश्चिम एशिया और यूरोप के बाजार से तो जोड़ेगा ही, एक और खास बात यह कि अफ्रीका में भी इसी तरह का एक नेटवर्क डवलप करने की योजना है। दूसरे शब्दों में सब-सहारन अफ्रीका में ‘ट्रांस अफ्रीका कॉरिडोर’ का निर्माण होना है, जिसमें यूरोपीय संघ भी साझेदार होगा। इस रेल लाइन के जरिए अंगोला के पश्चिमी तट को कांगो और जांबिया से आगे हिंद महासागर से जोड़ा जाएगा, जो मध्य अफ्रीका के एशिया और लैटिन अमेरिका के व्यापार को सुगम करेगा।
एक तीर से कई निशाने
इस परियोजना को एक तीर से कई निशाने लगाने के तौर पर भी देखा जा रहा है। अमेरिका के लिए यह सऊदी अरब के चीन और रूस से बढ़ते रिश्तों पर लगाम लगाने और इस्राइल व सऊदी अरब को नजदीक लाने की भी पहल है। सूत्रों के अनुसार जी20 सम्मेलन के एक सप्ताह पहले एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल रियाद गया था, तभी इस समझौते पर सऊदी सरकार ने अपनी आधिकारिक मुहर लगाई थी।
भारत के लिए कई सामरिक फायदे
- बीआरआई और सीपीईसी के जरिये चीन ने भारत को सामरिक रूप से घेरने की कोशिश की है। यह परियोजना उस घेरे से बाहर आने में भारत की मदद करेगी।
- इसकी बदौलत भारत को होरमुज स्ट्रेट, स्वेज नहर और बाब अल मंधब स्ट्रेट पर समुद्री आवाजाही की स्वतंत्रता होगी।
- दुनिया का एक तिहाई तेल और गैस होरमुज स्ट्रेट से होता है। भारत की ईंधन सुरक्षा के लिए यह एक निर्णायक रूट है।
- स्वेज नहर के रास्ते दुनिया का 12 प्रतिशत वैश्विक व्यापार भी होता है और इस परियोजना के जरिए उस पर नजर रखी जा सकेगी।
व्यापारिक महत्व सामरिक महत्व से कम नहीं
- यह व्यापार कॉरिडोर अगर बनता है तो पूरे हिंद महासागर में व्यापार के तौर-तरीके में बड़ा बदलाव होगा।
- मुंबई से संयुक्त अरब अमीरात और इस्राइल के हाइफा बंदरगाह के रास्ते यूरोप के बाजार पहुंचने में 10 दिन लगेंगे, जो मौजूदा समुद्री रूट से 40 प्रतिशत कम समय है।
- भारत का अरब राष्ट्रों के साथ भाईचारा बढ़ेगा और इस्राइल के साथ संबंधों की गुणवत्ता बढ़ेगी।
- भारत को सिर्फ बाजार समझने की सोच को चुनौती देते हुए उसे इंटरनैशनल सप्लाई चेन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनाने में मदद मिलेगी।
इस परियोजना की मुश्किलें कम नहीं
प्रस्तावित गलियारे के निर्माण में कई सारे राजनीतिक अवरोधों का सामना करना पड़ सकता है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि इस्राइल और सऊदी अरब में अब तक राजनयिक संबंध नहीं हैं। हालांकि दोनों देशों में वैसी दुश्मनी नहीं रही, जैसी पहले थी। जो भी गुत्थियां हैं, इनके संबंधों में उन्हें गिव एंड टेक के आधार पर सुलझाया जा सकता है। इस्राइल से इस प्रस्ताव के समर्थन या विरोध में अब तक कोई वक्तव्य आधिकारिक तौर पर नहीं आया है। माना जा रहा है कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप रूट के जरिये परियोजना के लिए फंड जुटाया जाएगा। यह भी तय है कि इस परियोजना के तैयार होने में काफी समय लगेगा और बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में यह अपने आप को स्थापित कर पाता है या नहीं, यह भी देखने वाली बात होगी। कहीं न कहीं यह आशंका भी है ही कि इसका भी हाल कहीं आईएनएससी (इंटरनैशनल नॉर्थ साउथ कॉरिडोर) वाला ना हो जाए, जो लगभग 20 वर्षों बाद भी सुप्तावस्था में ही है।
Comments