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शिव भोले क्यों हैं और लिंगोपासना क्यों की जाती है, विक्रम की जिज्ञासा और नन्दीजी के समाधान

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शिव भोले क्यों हैं और लिंगोपासना क्यों की जाती है, विक्रम की जिज्ञासा और नन्दीजी के समाधान

लेख//Madhya Pradesh/Indore :

महाकाल के परम भक्त सुप्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ और शल्य विशेषज्ञ डॉ. विक्रमादित्य के मन में, वर्तमान चिकित्सा विद्यार्थियों के विपरीत, जिज्ञासा जागी कि उसके आराध्य को आशुतोष या भोले भण्डारी क्यों कहते हैं और उनकी लिंग रूप में पूजा क्यों होती है? वह कोई प्रथम वर्ष का चिकित्सा विद्यार्थी भी नहीं था कि शिक्षक से प्रश्न पूछने में कांपने लगे I विक्रम तुरन्त महाकाल मन्दिर में पहुंचा और ॐ नम: शिवाय का जाप करते-करते शिवलिंग से लिपट कर करुणाभाव से बोला, भोलेनाथ ! मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं होगा तो मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा I थोड़ी ही देर में भगवान प्रकटे और बोले वत्स ! तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं का समाधान नन्दीजी करेंगे और इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गए I

नन्दीजी स्वत: प्रकट हो गए और बोले – विक्रम ! समुद्र मन्थन से निकलें हलाहल विष को स्वेच्छा से पीने वाले शिवजी स्वभाव से ही भोलें हैं, इसीलिए वे देवताओं के भी देव हैं और असुरों के भी आराध्य हैं I अभी देखो, तुमने पल-दो पल की जिद की और भगवान प्रकट हो गए I किसी भक्त के पास कुछ भी नहीं हो तो जलधारा से वे प्रसन्न हो जाते हैं I फल वाटिकाओं में बड़े जतन से उपजाए फलों के स्थान पर जंगलों में बिना उगाए ही उगने वाले जंगली तथा उपेक्षित जहरीले धतूरे को भी प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं I और तो और बिल्वपत्र उन्हें पसन्द हैं परन्तु यदि किसी भक्त के पास बिल्वपत्र नहीं है तो चढ़े हुए बिल्वपत्र को या नीचे गिरे हुए को भी धोकर चढ़ा देता है तो भगवान प्रसन्न हो जाते हैं I इसी तरह अपने आप उगने वाला आंकड़ा, जिसे धतूरे की तरह ही उपेक्षित समझा जाता है, उसके पुष्प भी भगवान को बहुत अच्छे लगते हैं I सच कहें तो शिवजी उपेक्षितों को सम्मान दिलवाने वाले और उनके तारणहार है I ऐसा उदाहरण पूरे ब्रह्माण्ड में नहीं मिलेगा I 
विक्रम- जी नन्दीजी ! बात तो आपकी सही है I 
नन्दीजी - एक बार क्या हुआ कि एक चोर बहुत दिनों से भूखा था, चुराने के लिए कुछ मिल नहीं रहा था, वह शिवालय में टंगे पीतल के घन्टे को चुराने के उद्देश्य से शिवलिंग पर चढ़ा तो भगवान प्रकट हो गए और बोले – वत्स ! मैंने ऐसा भक्त पहली बार देखा जिसने जल, पुष्प या फल चढ़ाने के स्थान पर स्वयं को ही मुझ पर अर्पित कर दिया हो, बोल क्या चाहता हैं? साक्षात शिवजी को सामने देखकर चोर का मन बदल गया और वह भोलेनाथ का परमभक्त बन गया I 
विक्रम- जी, नन्दी महाराज ! यह तो उनके सरल ह्रदय का अनुपम उदाहरण है I मैंने भी सुना था कि लोगों को मशक [चमड़े से बना एक पात्र] से पानी वितरित करने वाला एक व्यक्ति प्रतिदिन अपनी खाली मशक को एक पेड़ पर टांग दिया करता था I बचा हुआ पानी बून्द-बून्द नीचे गिरता था I ऐसा कई महीनों तक होता रहा I जहां पानी की बून्दें गिरा करती थी, उसके ठीक नीचे शिवलिंग विराजमान थे I भगवान ने उसे अपना परम भक्त माना और उसे दर्शन दे डालें I 
नन्दीजी [रोकते हुए बोले]- विक्रम ! वास्तव में भगवान आशुतोष बहुत ही सरल ह्रदय और शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवाधिदेव हंन I वे भावों के भूखे हैं I एक बहुत ही सीधा-साधा अनपढ़ व्यक्ति प्रतिदिन शिवालय आया करता था, भक्तिभाव से जल चढ़ाया करता था I एक दिन किसी दूसरे भक्त ने उसको टोका कि भगवान को जल चढाने का यह शास्त्रीय ढंग नहीं है, इससे भगवान अप्रसन्न हो जाते हैं I फिर शास्त्रीय ढंग बताते हुए कहा कि सबसे पहले गणेशजी, फिर कार्तिकेयजी, फिर अशोककुमारी और फिर शिवलिंग के चारों ओर पार्वतीजी को जल चढ़ाना चाहिए फिर शिवलिंग पर I बेचारा वह भक्त प्रतिदिन आता तो नियमों के चक्कर में सोच में पड़ जाता I जल चढ़ाने का क्रम याद नहीं रहने से वह दुखी रहने लगा I एक दिन भगवान ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि तुम पहले की तरह ही अपने हिसाब से जल चढ़ाया करो, मुझे अच्छा लगता है I वह आश्वस्त हो गया I वास्तव में दूसरों के दोषों को खोजने में उस्ताद ऐसे लोग सम्भवत मन्दिरों या समारोहों में आते ही इसलिए हैं कि दूसरों की क्रियाओं में दोषों को खोज सकें और सबके सामने ज्ञान झाड़ने का महत्वपूर्ण दायित्व निभा सकें I ऐसे परदुखियारे [दूसरों के सुख को देखकर दुखी होने वाले] स्वयं तो परमात्मा से दूर रहते ही हैं और दूसरों के निर्मल भावों में अपने ज्ञान से अड़ंगा डालते रहते हैं I भगवान कहते हैं, विधियां महत्वपूर्ण नहीं हैं, भाव सर्वोपरि हैं I विक्रम ! यूँ समझो कि तुम किसी रेस्टोरेंट में जाते हो और कचौरी मांगते हो तो दुकानदार कचौरी हाथ में नहीं देता है, दोने या प्लेट में देता है, कचौरी खाने के बाद दोने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, ऐसे ही परमात्मा के प्रति “भाव” कचौरी है और विधियां दोने या प्लेट हैं I यह भी तुम जानते हो कि भारतीय दर्शन में मनसा, वाचा, कर्मणा की बात की गई है, इसका अर्थ यह है कि मन की शुद्धता और पवित्रता सर्वोपरि है I विधियां यानी कर्मणा तीसरे दर्जे पर है I विक्रम ! विधियों की सीमित उपयोगिता का  उदाहरण कबीरदासजी के इस गीत से स्पष्ट हो सकता है I एक बार उनकी माला टूट गई, जिससे वे राम नाम जपा करते थे, तो उन्हें लगा कि अब माला [विधि] की कोई आवश्यकता नहीं है, और उन्होंने कहा था “भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं तो राम भजन से छूटी, मोरे सिर से टली बला… II माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम, राम हमारा हमें जपे रे कबीरा ! हम पायों विश्राम II भावार्थ है कि अब मुझे न माला की आवश्यकता है, न उँगलियों पर गिन-गिनकर रामनाम लेने की आवश्यकता है और न ही मुख से रामनाम लेने की आवश्यकता है, क्योंकि पूरा व्यक्तित्व ही राममय हो चुका है I गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरुद्राष्टक में कहा है, “भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्”, मैं भाव [प्रेम] के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्रीशिवजी को भजता हूँ I 
विक्रम- जी नन्दीजी महाराज ! भाव ही प्रधान है I 
नन्दीजी- विक्रम ! भोलेनाथजी को प्रसन्न करने से सभी तरह की ग्रह पीड़ा शान्त हो जाती है, पाँचों महाभूत सन्तुलित हो जाते हैं I सुख, शान्ति, ऐश्वर्य के साथ-साथ शिवजी सद्गति भी प्रदान करते हैं I स्वयं भगवान श्रीराम ने शिवजी की स्तुति करते हुए कहा है, यस्याखिलं जगदिदं वशवर्ति नित्यं योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते I यः कारणं सुमहतामपि कारणानां, तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि II अर्थात् यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञा के अधीन है, जो जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और प्रकृति- इन आठ विग्रहों से समस्त लोकों का उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से-बड़े कारण-तत्त्वों के भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशङ्कर की मैं शरण लेता हूँ I यही बात स्कन्द पुराण में भी कही गई है I 
नन्दीजी ने बोलना जारी रखा – विक्रम ! क्या तुम्हारे प्रश्न का समाधान हुआ या शेष है? 
विक्रम- नन्दीजी ! आपके कथनों से मुझे सन्तोष हो गया है I 
नन्दीजी- विक्रम ! अब मैं तुम्हें लिंगरूप की कथा बताता हूँ, ध्यान से सुनो I 
विक्रम- जी महाराज ! मैं सुनने को तैयार हूँ I 
नन्दीजी- विक्रम ! वैसे तो शिवजी अनादि काल से ही लिंग रूप में हैं I जैसे तुम्हारी जिज्ञासा है, वैसी ही जिज्ञासा एक बार ऋषियों ने वेदव्यासजी के परम शिष्य सूतजी के सामने प्रकट की कि सभी देवताओं की पूजा केवल मूर्ति रूप मे ही होती है किन्तु शिवजी की पूजा मूर्ति और लिंग दोनों रूपों मे क्यों होती है ? इस प्रश्न के उत्तर मे सूतजी ने बताया था कि भगवान शिवजी ब्रह्मस्वरूप हैं, इसलिए उन्हें निराकार कहा जाता है I जब वे साकार रूप धारण करते हैं, तब उन्हें साकार कहा जाता है I इस प्रकार वे साकार और निराकार दोनों रूपों में हैं I यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि केवल शिव ही ब्रह्म हैं I इसीलिए उनकी पूजा मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में की जाती है I अन्य देवता ब्रह्म नहीं हैं I इसलिए उनकी पूजा केवल मूर्तिरूप में ही होती है I इसीतरह एक बार ब्रह्माजी और विष्णुजी में सर्वश्रेष्ठता की स्पर्धा हो गई तो आकाश से पाताल तक एक दिव्य ज्योतिर्स्तम्भ प्रकट हुआ, जिसका आदि और अन्त दिखाई नहीं दे रहा था I उस स्तम्भ को देखकर दोनों के मध्य यह निश्चित हुआ कि जो इस स्तम्भ का आदि और अन्त अर्थात् ओर-छोर का पहले पता लगा लेगा, वह श्रेष्ठ माना जाएगा I दोनों ही असफल रहे, तभी वेद भगवान ने प्रकट होकर उन्हें समझाया कि प्रणव (ॐ) में अ कार ब्रह्मा है, उ कार विष्णु है और म कार महेश है I म कार ही बीज है और वही बीज लिंगरूप से सबका परम कारण है I 
नन्दीजी बोले – विक्रम ! सुन रहा है, न I 
विक्रम- जी नन्दीजी ! मैं सुन रहा हूँ I 
नन्दीजी- विक्रम ! लिंगपुराण में शिवलिंग को त्रिदेवमय और शिव-शक्ति का संयुक्त स्वरूप कहा गया है - 
मूले ब्रह्मा तथा मध्येविष्णुस्त्रिभुवनेश्वर:।
रुद्रोपरिमहादेव: प्रणवाख्य:सदाशिव:॥
लिङ्गवेदीमहादेवी लिङ्गसाक्षान्महेश्वर:।
तयो:सम्पूजनान्नित्यंदेवी देवश्चपूजितो॥

इसका अर्थ है कि शिवलिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा शीर्ष में शंकर हैं I प्रणव ॐ स्वरूप होने से सदाशिव महादेव कहलाते हैं I शिवलिंग प्रणव का रूप होने से साक्षात् ब्रह्म ही हैं I लिंग महेश्वर और उसकी वेदी महादेवी होने से लिंगार्चन के द्वारा शिवशक्ति दोनों की पूजा स्वत: ही सम्पन्न हो जाती है I भगवान शिवजी स्वयं लिंगार्चन की प्रशंसा करते हैं-
लोकं लिङ्गात्मकंज्ञात्वालिङ्गेयोऽर्चयतेहि माम् I न मेतस्मात्प्रियतर:प्रियोवाविद्यतेक्वचित् II
अर्थात् जो भक्त संसार के मूल कारण महा चैतन्यलिंग की अर्चना करता है तथा लोक को लिंगात्मक जानकार लिंग पूजा करने के लिए तत्पर रहता है, मुझे उससे प्रिय अन्य कोई नर नहीं है I
थोड़ा रुककर नन्दीजी बोले – विक्रम ! इसके अतिरिक्त भी लिंग स्वरूप के अवतरण की अनेक कथाएं हैं I बस, तू इतना जान ले कि भोलेनाथ होने के नाते, शिवजी की लिंग रूप में पूजा करना श्रेष्ठ है, क्योंकि लिंगरूप में भगवान का कोई विशेष श्रृंगार नहीं करना पड़ता है और जलाभिषेक मात्र से वे प्रसन्न हो जाते हैं, किसी भी प्रकार के वस्त्राभूषण आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती है क्योंकि वे भोलें हैं क्योंकि वे आशुतोष हैं I
 

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डॉ मनोहर भंडारी

By News Thikhana

डॉ. मनोहर भंडारी ने शासकीय मेडिकल कॉलेज, इन्दौर में लंबे समय तक अध्यापन कार्य किया है। वे चिकित्सा के अलावा भी विभिन्न विषयों पर निरंतर लिखते रहते है।

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